Ahilya Bai Holkar story part-5

 पुण्यश्लोका लोकमाता अहल्यादेवी होलकर-5:-

Ahilya Bai Holkar

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- प्रशासक देवी अहिल्या-1


  • अहिल्या देवी अत्यंत दूरदर्शी प्रशासिका भी थी। देवी अहिल्या के शासन को जॉन मलकुम ने "The Model of Good Governence" कहा।
  • देवी अहिल्या ने प्रातः स्मरणीया जीजाबाई (जिजाऊ) और छत्रपति शिवाजी महाराज के आदर्श को अपने सामने रखा था। जैसे शिवाजी समर्थ गुरु रामदास और मां तुलजा भवानी का प्रतिनिधि बनकर शासन कर रहे थे, वैसे ही अहिल्या माता भी भगवान शंकर की प्रतिनिधि बनकर राजकार्य कर रही थी। जिस प्रकार छत्रपति शिवाजी के दरबार में अष्टप्रधान थे, उसी प्रकार अहिल्या माता ने 37 विभाग और उन सबके प्रधानों को नियुक्त किया था।
  • पूरे देश में दृष्टि रखी जा सके और देश के विभिन्न स्थानों की सूचनाओं उन्हें यथासमय मिलती रहे, इसलिए देश के लगभग 13 संस्थानों (राजदरबारों) में उन्होंने अपने अधिवक्ता नियुक्त किये थे, और उन सभी संस्थाओं के एक-एक अधिवक्ता अपने स्वयं के दरबार में भी रखे हुए थे। यह एक ऐसा सूचना तंत्र (नेटवर्क) था, जिसके माध्यम से देवी अहिल्या संपूर्ण देश की जानकारी से सदैव अवगत रहती थी।

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- प्रशासक देवी अहिल्या-2:-

  • डाक व्यवस्था के रूप में उस समय पूरे देश में बामनिया पत्र व्यवस्था चलती थी।
  • देवी अहिल्या इस व्यवस्था पर निर्भर नहीं रहीं।उन्होंने अपनी स्वयं की संचार व्यवस्था बना ली थी। उन्होंने चारों दिशाओं में प्रत्येक 10 कोस पर एक-एक चौकी का निर्माण करवा दिया था,जहां उनके संदेश वाहक रहते थे। एक संदेशवाहक को सूचना लेकर अधिकतम 10 कोस ही चलना पड़ता था, जो वे द्रुतगति से तय कर लेते थे। इस प्रकार संदेश कम समय में अधिक दूरी तक चला जाता था। अपनी स्वयं की व्यवस्था बनाने का लाभ यह था, कि उनके द्वारा भेजे जाने वाले या उन तक आने वाली सूचनाओं की गोपनीयता के भंग होने की संभावना अत्यंत कम हो गई थी।
  • इसके बाद भी कहीं विरोधी या शत्रु संदेशवाहकों को पकड़कर सूचनाएं न ले ले, इसलिए संदेशवाहकों के रूप में ऐसे विद्वान और ब्राह्मणों का उपयोग किया जाता था, जिन पर कोई संदेह ही न कर सके।

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- प्रशासक देवी अहिल्या-3:-

  • देवी अहिल्या हृदय से जितनी उदार थीं, उतनी ही कठोर प्रशासिका भी थी। 
  • राज्य कर नहीं देकर, विद्रोह करने वाले चंद्रावत के जाटों से उन्होंने संघर्ष किया और उनके सेनापति सौरवसिंह जाट को तोप से बाँध कर उड़ा दिया था, ताकि यह उदाहरण बन जाए कि आगे से कोई नियम की अवमानना और अनावश्यक विद्रोह न कर सके।
  • उन्होंने उस समय प्रचलित, उर्दू और फारसी बोली को उपेक्षित कर संस्कृत, मालवी और खड़ी बोली में शब्द व्यवहार प्रचलन में लाने का प्रयास किया। उनके बने कानून व व्यवस्थाओं में चाणक्य नीति का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है।

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