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Ahilyabai Holkar History in Hindi ( अहिल्याबाई होल्कर )

 Ahilyabai Holkar History in Hindi ( अहिल्याबाई होल्कर ):-

Ahilyabai Holkar History in Hindi ( अहिल्याबाई होल्कर )

  • 31 मई, 2024 से अहल्यादेवी होलकर का '300 वाँ' जयंती वर्ष प्रारंभ हो गया है। उनका जीवन भारतीय इतिहास का एक गौरवशाली स्वर्णिम पर्व है। ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले सामान्य परिवार की बालिका से एक असाधारण शासनकर्ता तक की उनकी जीवनयात्रा आज भी प्रेरणा का महान स्रोत है।
  • वे कर्तृत्व परायण, सादगी, धर्म के प्रति समर्पण, प्रशासनिक कुशलता, दूरदृष्टि एवं उज्वल राष्ट्रीय चारित्र्य का अद्वितीय आदर्श थीं।
  •  'श्री शंकर आज्ञेवरून' (श्री शंकर जी की आज्ञानुसार) इस राजमुद्रा से चलने वाला उनका शासन हमेशा भगवान् शंकर के प्रतिनिधि के रूप में ही काम करता रहा....।
  •  उनका लोक कल्याणकारी शासन भूमिहीन किसानों, भीलों जैसे जनजाति समूहों तथा विधवाओं के हितों की रक्षा करनेवाला एक आदर्श शासन था। 
  •  समाजसुधार, कृषिसुधार, जल प्रबंधन, पर्यावरण रक्षा, जनकल्याण और शिक्षा के प्रति समर्पित होने के साथ साथ उनका शासन न्यायप्रिय भी था। 
  •  समाज के सभी वर्गों का सम्मान, सुरक्षा, प्रगति के अवसर देने वाली समरसता की दृष्टि उनके प्रशासन का आधार रही।
  • केवल अपने राज्य में ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण देश के "मंदिरों की पूजन-व्यवस्था और उनके आर्थिक प्रबंधन'' पर भी उन्होंने विशेष ध्यान दिया। बद्रीनाथ से रामेश्वरम तक और द्वारिका से लेकर पुरी तक "विधर्मी आक्रमणकारियों द्वारा क्षतिग्रस्त मंदिरों का उन्होंने पुनर्निर्माण" करवाया। 
  • प्राचीन काल से चलती आयी और आक्रमण काल में "खंडित हुई तीर्थयात्राओं में उनके कामों से नवीन चेतना आयी।"
  • इन वृहद कार्यों के कारण ही उन्हें 'पुण्यश्लोक' की उपाधि मिली। संपूर्ण भारतवर्ष में फैले हुए इन पवित्र स्थानों का विकास वास्तव में उनकी राष्ट्रीय दृष्टि का परिचायक है।
  • पुण्यश्लोका देवी अहिल्याबाई की जयंती के 300 वें वर्ष के पावन अवसर पर उन्हें श्रद्धापूर्वक नमन् करते हुए समस्त सनातन समाज बंधु-भगिनी इस पर्व पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में मनोयोग से सहभाग करें। उनके दिखाये गए सादगी, चारित्र्य, धर्मनिष्ठा और  राष्ट्रीय स्वाभिमान के मार्ग पर अग्रसर होना ही उन्हें सच्ची श्रध्दांजलि होगी।

पुण्यश्लोका लोकमाता अहल्यादेवी होलकर जीवनवृत्त-1:-

  • 31 मई 1723 को अहमदनगर के चौंडी ग्राम में माता सुशीला व पिता माणकोजी शिंदे के घर तीसरी संतान के रूप में अहिल्या का जन्म हुआ। मानकोजी स्वयं अपनी पुत्री अहिल्या को विभिन्न विषयों का प्रशिक्षण देते थे। उन्होंने बालपन में ही उन्हें गणित, भूगोल, घुड़सवारी युद्ध, पत्र व्यवहार इत्यादि विधाओं का ज्ञान देना प्रारंभ कर दिया था। अहिल्या खेल-खेल में कभी मिट्टी के हाथी, घोड़े, किले बनाती तो कभी शिवलिंग।
  • मल्हारराव जी, बाजीराव पेशवा के मित्र भी थे और उनके सैन्य में भी थे। मल्हार राव जी को मालवा का सूबेदार नियुक्त किया गया था। एक दिन पुणे जाते समय मल्हार राव होलकर चौंडी गांव में विश्राम के लिए रुके। एकाएक उनकी नजर एक बच्ची अहिल्याबाई पर पड़ी, जो एकाग्रचित्त होकर भगवान शिव की आराधना कर रही थीं। दीपक की लौ से उनका मुख आलोकित हो रहा था। "इतनी कम उम्र में उस लड़की की धर्मनिष्ठा को देख मल्हारराव होलकर काफी प्रभावित हुए। उनकी यह सादगी, विनम्रता और भक्ति भाव मल्हार राव होलकर को भा गया।"

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर-जीवनवृत्त-2:-

  • यह जानते हुए भी कि बालिका अहिल्याबाई किसी राजवंश से नहीं है बल्कि एक चरवाह की बेटी है, मल्हारराव होलकर ने उन्हें अपनी पुत्रवधु बनाने का निश्चय किया। इस प्रकार देवी अहिल्या 12 वर्ष की अवस्था में इंदौर राजघराने की बहू बन गई।
  • मल्हारराव जी और उनकी धर्मपत्नी गौतमाबाईजी, अहिल्या देवी के लिए आदर्श सास-श्वसुर के रूप में दिखाई पड़ते हैं। मल्हारराव जी अहिल्या से अत्यंत स्नेह रखते थे। वास्तव में उन्होंने अहिल्या को अपनी बेटी की तरह स्वीकार किया, उनके व्यक्तित्व को निखारा और उनका पालन पोषण भी किया।
  • उनकी सास गौतमाबाई ने गृह संचालन से लगाकर तोपखाने तक 18 विभागों का प्रशिक्षण अहिल्यादेवी को दिया। गौतमाबाई स्वयं भी युद्ध कला में पारंगत महिला थी। वह भी मल्हारराव जी के साथ युद्ध पर जाया करती थी। व्यवहारिक जीवन मूल्य हो या राजकाज के कार्य हो, मल्हारराव जी और उनकी धर्मपत्नी गौतमाबाई अहिल्या के लिए सास-श्वसुर के साथ साथ गुरू समान भी थे। इसीलिए वे स्वयं को सूबेदारजी की बहू कहलाना पसंद करती थी।

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर-जीवनवृत्त-3:-

  • मल्हारराव जी को अपने अभियानों के चलते ज्यादातर समय बाहर जाना होता था। ऐसी स्थिति में मात्र 15 वर्ष की आयु से ही देवी अहिल्या राजकाज के काम को समझने लगी थी। वह राजदरबार और कार्यालय दोनों ही संभाल लेती थीं। राजकाज के काम में वह इतनी अनुशासित थीं, कि वह किसी भी अनियमितता को सहन नहीं करती थी।
  • पुत्र मालेराव के यद्यपि अपनी माता अहिल्याबाई से वैचारिक मतभेद रहते थे। किंतु फिर भी, वह मालेराव से अगाध स्नेह करती थी। मालेराव जब गादी पर बैठे थे, तो वस्तुतः शासन का संपूर्ण प्रबंध देवी अहिल्या ही देखा करती थीं।
  • अहिल्या माता ने अपने जीवन में पांच पुरुष और अठारह महिलाओं का निधन देखा था। कुम्भेरी (राजस्थान) की एक युद्ध मुहिम में तोप के गोले से पति खण्डेराव का बलिदान हो गया। अगले दस वर्ष में ही सास गौतमाबाई व ससुर मल्हारराव का देहांत हो गया। अहिल्याबाई की दो संतान थी। पुत्र मालेराव व कन्या मुक्ताबाई। दुर्भाग्यवश बावीस वर्ष की आयु में ही पुत्र मालेराव का निधन हो गया। मालेराव की मृत्यु के बाद अहिल्या माता का हृदय टूट गया और वे अपनी राजधानी को इंदौर से स्थानांतरित करके महेश्वर ले गई।

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर - जीवनवृत्त-4:-

  • सन् 1790-91 में फैले हैजे में नाती नत्थोबा का निधन हो गया। एक वर्ष बाद ही जवांई यशवंतराव फणसे का निधन होने पर पुत्री मुक्ताबाई ने सति जाने का निर्णय लिया। अहिल्याबाई के बहुत प्रयास के बाद भी वे रुकी नहीं, सति हो गईं। इतनी दुर्घटनाएं किसी भी व्यक्ति को अंदर तक तोड़ देने के लिए पर्याप्त होती हैं। किंतु अहिल्या माता अपने कर्तव्य पथ पर अडिग खड़ी रहीं। अपनी पारिवारिक परिस्थितियों का प्रभाव राज्य के कार्यभार और जन कल्याण पर नहीं पड़ने दिया।
  • महादेव की अनन्य भक्त देवी अहिल्याबाई ने निरंतर 29 वर्ष अपने राज्य का संचालन व लोककल्याण के कार्य करते हुए 13 अगस्त 1795 को अंतिम श्वास ली। महेश्वर के नर्मदा तट पर छत्री के रूप में आपका स्मारक निर्मित है।
Ahilya Bai Holkar


      पुण्यश्लोका लोकमाता अहल्यादेवी होलकर - धर्मनिष्ठा:-

  • महारानी अहिल्याबाई की प्रारंभ से ही महादेव पर अटूट आस्था रही। उनकी दिनचर्या किसी संत के समान थी। वे प्रतिदिन ब्रह्ममुहर्त में उठकर स्नान, पूजा, ध्यान से निवृत्त होकर अपनी गाय श्यामा के दर्शन करने के उपरांत लोकसेवा के कार्य में लग जाती थी। अन्नदान व धनदान उनका नित्य कर्म होता था। माँ नर्मदा के प्रति उनकी गहरी आस्था थी। अतः माँ नर्मदा की परिक्रमा के श्रद्धालुओं हेतु  उन्होंने भोजन, विश्राम व अन्य आवश्यक सुविधाओं का प्रबंध करवाया।
  • शिव के प्रति उनके समर्पण भाव का पता इस बात से चलता है कि वे राजकाज सम्बन्धी आज्ञाओं पर हस्ताक्षर करते समय अपना नाम नहीं लिखती थी बल्कि पत्र के नीचे केवल 'श्री शंकर' लिख देती थी। उनके कार्यकाल में जारी किये गये रुपयों पर शिवलिंग और बिल्व पत्र का चित्र और पैसों पर नंदी का चित्र अंकित होते थे।

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- प्रशासक देवी अहिल्या-1

  • अहिल्या देवी अत्यंत दूरदर्शी प्रशासिका भी थी। देवी अहिल्या के शासन को जॉन मलकुम ने "The Model of Good Governence" कहा।
  • देवी अहिल्या ने प्रातः स्मरणीया जीजाबाई (जिजाऊ) और छत्रपति शिवाजी महाराज के आदर्श को अपने सामने रखा था। जैसे शिवाजी समर्थ गुरु रामदास और मां तुलजा भवानी का प्रतिनिधि बनकर शासन कर रहे थे, वैसे ही अहिल्या माता भी भगवान शंकर की प्रतिनिधि बनकर राजकार्य कर रही थी। जिस प्रकार छत्रपति शिवाजी के दरबार में अष्टप्रधान थे, उसी प्रकार अहिल्या माता ने 37 विभाग और उन सबके प्रधानों को नियुक्त किया था।
  • पूरे देश में दृष्टि रखी जा सके और देश के विभिन्न स्थानों की सूचनाओं उन्हें यथासमय मिलती रहे, इसलिए देश के लगभग 13 संस्थानों (राजदरबारों) में उन्होंने अपने अधिवक्ता नियुक्त किये थे, और उन सभी संस्थाओं के एक-एक अधिवक्ता अपने स्वयं के दरबार में भी रखे हुए थे। यह एक ऐसा सूचना तंत्र (नेटवर्क) था, जिसके माध्यम से देवी अहिल्या संपूर्ण देश की जानकारी से सदैव अवगत रहती थी।

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- प्रशासक देवी अहिल्या-2:-

  • डाक व्यवस्था के रूप में उस समय पूरे देश में बामनिया पत्र व्यवस्था चलती थी।
  • देवी अहिल्या इस व्यवस्था पर निर्भर नहीं रहीं।उन्होंने अपनी स्वयं की संचार व्यवस्था बना ली थी। उन्होंने चारों दिशाओं में प्रत्येक 10 कोस पर एक-एक चौकी का निर्माण करवा दिया था,जहां उनके संदेश वाहक रहते थे। एक संदेशवाहक को सूचना लेकर अधिकतम 10 कोस ही चलना पड़ता था, जो वे द्रुतगति से तय कर लेते थे। इस प्रकार संदेश कम समय में अधिक दूरी तक चला जाता था। अपनी स्वयं की व्यवस्था बनाने का लाभ यह था, कि उनके द्वारा भेजे जाने वाले या उन तक आने वाली सूचनाओं की गोपनीयता के भंग होने की संभावना अत्यंत कम हो गई थी।
  • इसके बाद भी कहीं विरोधी या शत्रु संदेशवाहकों को पकड़कर सूचनाएं न ले ले, इसलिए संदेशवाहकों के रूप में ऐसे विद्वान और ब्राह्मणों का उपयोग किया जाता था, जिन पर कोई संदेह ही न कर सके।

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- प्रशासक देवी अहिल्या-3:-

  • देवी अहिल्या हृदय से जितनी उदार थीं, उतनी ही कठोर प्रशासिका भी थी। 
  • राज्य कर नहीं देकर, विद्रोह करने वाले चंद्रावत के जाटों से उन्होंने संघर्ष किया और उनके सेनापति सौरवसिंह जाट को तोप से बाँध कर उड़ा दिया था, ताकि यह उदाहरण बन जाए कि आगे से कोई नियम की अवमानना और अनावश्यक विद्रोह न कर सके।
  • उन्होंने उस समय प्रचलित, उर्दू और फारसी बोली को उपेक्षित कर संस्कृत, मालवी और खड़ी बोली में शब्द व्यवहार प्रचलन में लाने का प्रयास किया। उनके बने कानून व व्यवस्थाओं में चाणक्य नीति का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है।


पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- राजनैतिक प्रबंधन-1:-

  • मालवा की यह रानी एक प्रभावशाली शासक होने के साथ साथ कुशल राजनीतिज्ञ भी थी। *सन् 1772 में उन्होंने पत्र लिख कर पेशवा को सावधान किया 'अंग्रेजों का प्रेम उस भालू के समान है जो गुदगुदी कर करके ही प्राण निकाल लेता है।' इस प्रकार यह समझा जा सकता है कि अहिल्याबाई का कूटनीतिक व राजनीतिक चिंतन उच्च कोटि का था।
  • अहिल्याबाई होल्कर ने अपने निकट स्थित किसी भी राज्य पर कभी हमला नहीं किया... लेकिन यदि किसी ने उनकी और आंख उठाकर देखा तो वे उसका मुंहतोड़ जबाब देने की हिम्मत भी रखती थी।
  • उनका विश्वास अनावश्यक युद्ध में कभी नहीं रहा लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं था कि वे एक भीरू शासिका थीं। "उनका कहना था कि 'समस्त भारत की जनता एक है। भारत हमारा एक बड़ा राष्ट्र है। छोटे-बड़े राज्यों का भेद विष के समान है। यह भेद का विष एक दिन हम सबको नरक में धकेलेगा।"

 

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- राजनैतिक प्रबंधन-2:-

  • अहिल्याबाई के एकमात्र पुत्र मालेराव की मृत्यु के बाद राज्य का कोई उत्तराधिकारी भी नहीं था। उनके दीवान गंगाधर ने माधवराव पेशवा के काका जिन्हें राधोबा दादा के नाम से जाना जाता था, को होलकर राज्य मालवा पर कब्जा करने के लिये उकसाया। यह समाचार पाकर कि राधोबा दादा अपने पचास हजार सैनिकों के साथ पूना से इन्दौर की और मालवा विजय हेतु चल पड़े हैं, माता अहिल्या ने वीरांगना का रूप धारण कर लिया। आसपास के राज्यों से उन्होंने समर्थन व सेना भी जुटा ली।
  • इसके बाद अहिल्याबाई ने अपनी बुद्धि कौशल का प्रयोग करते हुए राधोबा दादा पेशवा को यह समाचार भेजा कि- 'यदि वह स्त्री सेना से जीत अर्जित भी कर लेंगे, तो उनकी कीर्ति और यश में कोई बढ़ोत्तरी नहीं होगी, दुनिया यही कहेगी कि स्त्रियों की सेना से ही तो जीते हैं। और कदाचित अगर आप स्त्रियों की सेना से हार गये, तो कितनी जग हंसाई होगी आप इसका अनुमान भी नहीं लगा सकते।'
  • महारानी अहिल्या बाई की यह बुद्धिमत्ता काम कर गई। राघोबा दादा ने मालवा पर आक्रमण करने का विचार त्याग दिया।

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- राज्य का आर्थिक प्रबंधन-1:-

  • देवी अहिल्या की शैक्षिक और आर्थिक मामलों में दृष्टि बड़ी तीक्ष्ण थी। वे निर्णय क्षमता संपन्न महिला थीं। 
  • मालवा की स्थिति भारत में मध्य में है, देवी अहिल्या ने इस भौगोलिक स्थिति का लाभ लेकर व्यापार को बढ़ाया। उन्होंने नए उद्योगों, खेती और व्यापार के लिए विशेष प्रयास किये। उन्होंने अपनी टकसाल बनवाई और रोजगार के पर्याप्त अवसरों का निर्माण किया।

  • सन् 1759 में उन्होंने बुनकर के रूप में मालू समाज को महेश्वर में बसाया। इन्हें वाराणसी से बुलाया गया था। महेश्वर में उत्कृष्ट कपड़े के निर्माण का कार्य आरम्भ हुआ। कपडे के कच्चे माल से लेकर विपणन (मार्केटिंग) व ब्रांडिंग का अनूठा उदाहरण यही 'माहेश्वरी साड़ी' है, जो आज जग विख्यात है। माहेश्वरी साड़ी का निर्माण स्वयंसहायता समूह के द्वारा स्वावलम्बन का एक सफल अनूठा प्रयोग था। निरन्तर....

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- राज्य का आर्थिक प्रबंधन-2:-

  • वीरगति प्राप्त सैनिकों की पत्नियों के लिए भी अहिल्या माता ने स्वयंसहायता समूह बनवाए।
  • वे अपने निजि कोष से सस्ते ऋण भी दिया करती थी। इससे प्रजा का हित तो होता ही था, साथ ही उनका अपना कोष भी बढ़ता था।
  •  पीने के पानी का भी समुचित व्यवस्थापन किया। प्रदूषित जल पीने के पानी के स्रोतों में नहीं मिल पाए, उसकी व्यवस्था भी की।
  • अकाल के समय वे प्रजा को कर में छूट दे देती थीं। उन्होंने किसानों को इस बात के लिए स्वतंत्र रखा कि वह अपनी उपज कहीं भी बेच सकते थे।
  • राज्य में जिनके पास भूमि नहीं होती, उन्हें जमीन प्रदान की जाती। उनके '9-11 कानून' के माध्यम से भूमिहीनों को भूमि के पट्टे दिए गए, जिन पर किसान उपज का 9-11 के अनुपात से स्वयं और राज्य के कर का निर्धारण करता था।
  • वन संरक्षण पर भी उनका पर्याप्त ध्यान था। उन्होंने भिन्न-भिन्न प्रकार के हजारों वृक्षों का रोपण करवाया।
  • उन्होंने कर संग्रहण की अनुशासित व निष्पक्ष पद्धति का विकास किया। करों का पुनर्निर्धारण किया तथा अनर्गल करों को समाप्त कर दिया। प्रजा की सुगमता के लिए, उन्होंने किश्तों में कर देने का प्रावधान भी कर दिया।

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- सैन्य प्रबंधन-1:-

  • जब अहिल्या देवी ने शासन संभाला, तब उनकी पूरी सेना के पास मात्र तीन बंदूके हुआ करती थी। किन्तु जब उन्होंने अपनी सेना की क्षमता बढ़ाना प्रारंभ की, तो अंग्रेजों ने जानबूझकर बंदूकों का मूल्य बढ़ा दिया और देवी अहिल्या को बंदूके देना बंद कर दिया। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप अहिल्या माता ने स्वयं अपने शास्त्रागरों का निर्माण प्रारंभ कर दिया था।
  • अपने जीवन काल में उन्होंने सात किलों का निर्माण किया, तोपखानों की स्थापना करना वे बड़े अच्छे से जानती थी। अपनी सेना के आधुनिकीकरण के लिए उन्होंने बोइड (Boyd) नाम के एक ऑफिसर को भी नौकरी पर रखा था।
  • मल्हारराव जी होलकर और देवी गौतमाबाई द्वारा प्रदत्त प्रशिक्षण में, अहिल्या माता ने बहुत कुछ सीखा था। समय के साथ-साथ वे पूरा का पूरा तोपखाना कैसे स्थापित किया जाता है, यह भी सीख गईं। भानपुरा में उन्होंने तोपखाना स्थापित भी किया और गोहद के युद्ध के लिए वहां से तोप लेकर स्वयं गई थीं। इन्ही तोपों के माध्यम से अहिल्या माता ने गोहद के युद्ध में विजय प्राप्त की थी।

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- सैन्य प्रबंधन-2:-

  • यहाँ यह उल्लेख किया जाना समयोचित होगा कि उन्होंने अपने स्वयं के सेनापतित्व में अपनी ननद उदाबाई के साथ मिलकर 500 महिलाओं की एक सैन्य टुकड़ी का भी गठन किया था। उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया और अस्त-शस्त्रों से सुसजित किया था। गोला बारूद व रसद संग्रह का कार्य भी उन्होंने महिला सेनानियों के जिम्मे कर दिया।
  • देवी अहिल्या ने अंग्रेजों के खतरे का भी पूर्वानुमान कर लिया था और उस संबंध में वे भलीभाँति जानती थीं कि भारत के संपूर्ण सनातनी समाज की एकात्मता के बिना अंग्रेजों का सामना नहीं किया जा सकता है।

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- तीर्थस्थलों का विकास - उनकी राष्ट्रीय दृष्टि-1:-

  • केवल महेश्वर क्षेत्र में ही उन्होंने 28 घाट और 50 मंदिर बनवाए थे। 
  • अहिल्या माता की दृष्टि केवल मालवा राज्य तक ही सीमित नहीं थी, वस्तुतः वह पूरे राष्ट्र को सनातन संस्कृति में गूंथा हुआ ही देखती थीं। उनका दृष्टिकोण अखिल भारतीय था।
  • वे मानती थीं कि भारत की एकात्मता में तीर्थ यात्राओं का बड़ा महत्व है। ये तीर्थ यात्राऐं न केवल आध्यात्मिक सुख शांति देती हैं अपितु विविध क्षेत्र, पंथ, भाषा, मान्यताओं वाले इस विराट भारत के जन-जन को एकात्मता के सूत्र में बांधती हैं।
  • उन्हें यह भलीभाँति एहसास था कि युगों युगों से चली आ रही तीर्थ यात्राओं की यह पावन परंपरा विदेशी विधर्मी सत्ताओं के कारण टूट गयीं हैं।
  • इन स्थानों के मार्ग, मंदिर, अन्नक्षेत्र, पेयजल व्यवस्था, धर्मशालाएँ इस्लामिक आक्रांताओं ने ध्वस्त कर दी हैं। इनके पुनर्निर्माण किये बिना तीर्थ यात्राएँ सुगम नहीं होंगी। इसीलिए पूरे भारत में उन्होंने एक दृष्टी से अनेकों महत्वपूर्ण निर्माण कार्य करवाए।
        

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- तीर्थस्थलों का विकास - उनकी राष्ट्रीय दृष्टि-2:-

  • वाराणसी में मणिकर्णिका घाट, अहिल्या माता के द्वारा ही बनवाया गया था।
  •  बद्रीनाथ से रामेश्वरम और द्वारिका से काशी तक उन्होंने अनेकों घाट, धर्मशालाएं, मंदिर इत्यादि बनवाए।
  • काशी से कोलकाता तक सड़क को पक्का करवाया। कई भन्न मंदिरों का पुनर्निर्माण करवाया।
  • देवी अहिल्या ने राजनीतिक और भौगोलिक सीमाओं को लांघकर भी पूर्ण शांति और सहमति के साथ अनेकों निर्माण कार्य करवाए। अहिल्या माता का प्रभाव इतना अधिक था कि, उन्होंने टीपू सुल्तान के राज्य में भी मंदिरों का निर्माण करवा दिया था।
  • भारत में लगभग 80 से 100 ऐसे ज्ञात स्थान है जहां पर अहिल्या माता ने भवनों का निर्माण करवाया।

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- तीर्थस्थलों का विकास- राष्ट्रीय दृष्टि-3:-

  • देवी अहिल्याबाई का यह महती कार्य, भारत को जोड़ने का कार्य था। यह भारतीय समाज को एकात्मता के सूत्र में गूंथने का कार्य था। अहिल्या माता ने न केवल स्थापत्यों का निर्माण करवाया बल्कि वहां भविष्य में भी सुचारू रूप कार्य चलता रहे, उसकी भी अग्रिम व्यवस्था कर दी।
  • वे अंग्रेजों के मनोभावों को बहुत अच्छे से समझती थीं। अहिल्या माता द्वारा किए गए यह कार्य अंग्रेजों के षडयंत्रों के विरुद्ध, हिंदू एकत्रीकरण का प्रयास भी थे। फिर भी वे रुकी नहीं, अपितु जीवन के अंतिम क्षण तक सतत् इस कार्य में लगी रहीं।
  • लोकमाता अहिल्या की दृष्टि में, सभी पंथ संप्रदाय एक समान थे। इसलिए उन्होंने सम्यक दृष्टि से शैव, शाक्त, वैष्णव आदि सभी स्थानों का निर्माण करवाया। उन्होंने महान संतों के स्थान पर भी निर्माण कार्य करवाए। वह जानती थी कि मंदिर, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र होते हैं। इसलिए अहिल्या माता के इन प्रयासों से समाज में बड़े परिवर्तनों को गति मिली।

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- निर्माण हो या दान-पुण्य 'खासगी' (निजि) धन से-1:-

  • व्यसन में डूबे और गलत राह पर जाते हुए अपने पति से अहिल्यादेवी निराश नहीं हुई, बल्कि उन्होंने अपने पति को सही राह पर लाने ले जाने का प्रयास किया। वे बहुत हद तक इसमें वह सफल भी हुई।
  • जब देवी अहिल्या ने अपने पति को भी उनके अनर्गल खर्च के लिए, राजकोष से धन देने के लिए मना कर दिया, तो गुस्से में पति खंडेराव जी ने राजकीय बहीखातों को फेंक दिया था। यह देखकर अहिल्या देवी ने अपने पति पर ही जुर्माना लगा दिया। हालांकि बाद में पत्नीधर्म निभाते हुए उन्होंने उनसे क्षमा भी मांगी और अपने खासगी (निजी) धन से ही 25 मुद्राओं का जुर्माना भरा था।
  • देवी अहिल्याबाई की सास गौतमाबाई को उनके भाई से जागीर प्राप्त हुई थी। बाजीराव पेशवा ने भी गौतमाबाई को एक बड़ी राशि दिनांक 20 जनवरी 1734 को दी थी। उन दिनों धनगर समाज में पति की कमाई का एक चौथाई हिस्सा पत्नी को दिया जाता था। अतः यह राशि भी गौतमाबाई को मिली। इस संपूर्ण राशि को मिला करके एक खासगीकोष अर्थात विशेष कोष बना। अहिल्याबाई इसी खासगीकोष से अपने व्यक्तिगत खर्च किया करती थी।
  • अहिल्या देवी के शासनकाल में संपन्नता का स्तर इतना उठा की इंदौर रियासत, पुणे के पेशवा को भी ऋण दिया करती थी।

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- निर्माण हो या दान-पुण्य 'खासगी' (निजि) धन से-2:-

  • युद्ध से लौटने के बाद मल्हारराव जी राज्य की संपूर्ण व्यवस्थाओं का एक बार निरीक्षण करते थे।
  • राजकोष और लेनदेन का निरीक्षण करते हुए, जब उन्होंने किसानों के बहीखातों को देखा, तो देखकर कुछ देर ठिठके और फिर आगे का निरीक्षण करने लगे। अहिल्यामाता ने मल्हारराव जी की उस दो पल के हावभाव को पकड़ लिया और मल्हारराव जी कुछ कहे उसके पहले स्वयं देवी अहिल्या ने उन्हें बताया, कि इस वर्ष ओले गिरे हैं और अतिवृष्टि हुई है, इसीलिए किसानों के लिए अधिक खर्च किया गया है।
  • देवी अहिल्या के सामने जो दायित्व आए, उन्होंने उन सभी का निर्वहन किया। मल्हारराव होलकर, बाजीराव पेशवा के घनिष्ठ मित्र थे और अहिल्या माता उन्हें अपने भाई के समान मानती थी।
  • जब बाजीराव पेशवा का बलिदान हुआ, तो उनके अंतिम संस्कार का संपूर्ण खर्च, उन्होंने अपने व्यक्तिगत कोष, खासगी ट्रस्ट से किया था।
  • सम्पूर्ण देश के 100 से अधिक तीर्थस्थलों पर देवस्थान, बावड़ी, अन्नक्षेत्र आदि के निर्माण का सारा व्यय देवी अहिल्याबाई ने अपने इसी खासगी निधि से ही किया। राजकोष से एक पाई भी नहीं ली

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- प्रजावत्सल माता अहिल्या-2:-

  • देवी अहिल्या संपूर्ण समाज को समभाव से देखती थीं। महेश्वर किले के लगभग 300 कर्मचारी जिनमें, अधिकारी वर्ग से लगाकर सफाई कर्मचारी तक सम्मिलित थे, सभी एक साथ भोजन करने बैठते थे। देवी अहिल्या स्वयं भी इन सबके साथ भोजन किया करती थीं।
  • वे राज सिंहासन पर नहीं अपितु एक गादी पर बैठती थीं। दरबार में आये प्रजाजन हों, दरबारी हों या वे स्वयं सब एक ही उंचाई पर बैठते। महिलाओं को दरबार में आने के लिये कोई रोक-टोक नहीं थी।

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- प्रजावत्सल माता अहिल्या-3:-

  • उन दिनों राज्य के वनवासी भीलों के द्वारा की जाने वाली लूटपाट का बड़ा भय होता था। वह मार्ग से गुजरने वाले यात्रियों को अक्सर लूट लिया करते थे। उनकी आय का कोई साधन व रोजगार न होने से यह लूटपाट ही उनके उदरपोषण का साधन था। किंतु यह लूट, राज्य, यात्रियों व व्यापारियों के लिए एक सरदर्द बन चुकी थी।
  • इस बड़ी ज्वलंत समस्या का समाधान करने के लिए अहिल्यामाता ने जो घोषणा की, उससे यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि देवी अहिल्या ऐसी प्रजावात्सला थीं कि उनकी दृष्टि में अपनी संतान और अपनी प्रजा में कोई भेदभाव ही नहीं था।
  • अपनी प्रजा के कष्ट का निवारण करने के लिए उन्होंने वनवासी भीलों को बुलवाया व उन्हें ही मार्ग के यात्रियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी दे दी। बदले में उन्हें यात्रियों से शुल्क लेने के अधिकार प्रदान किये। इस प्रकार एक ही उपाय से यात्रियों व भीलों की समस्या का समाधान हो गया।

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- महिला सशक्तिकरण:-

  • महिलाओं के अधिकारों को लेकर अहिल्यादेवी अत्यंत सजग थीं। उनके दरबार में महिलाओं को आने की पूरी स्वतंत्रता थी।
  • जब समाज में फैली कुरीतियों के विरोध में कोई भी आवाज नहीं उठाता था, ऐसे समय में एक महिला होकर भी अहिल्या माता ने सतीप्रथा का विरोध किया। उनका विरोध करना ही उस समय का एक क्रांतिकारी कदम था।
  • अहिल्या माता ने दहेज प्रथा को अपराध घोषित कर दिया था।
  • पूरे देश में हिंदुओं का एकत्रीकरण, एकात्मकता हो इसलिए वे अंतरराज्यीय विवाह संबंधों के भी पक्ष में थीं।
  •  उस समय विधवाओं को संपत्ति का अधिकार नहीं था। अहिल्या माता ने अपने शासनकाल में विधवाओं को संपत्ति रखने और उसके उपयोग का अधिकार दिया। उनकी संपत्ति को हस्तगत (स्थानांतरण) करने के किसी भी प्रयास को निषेध कर दिया। स्त्रियों को अपना मनचाहा दत्तक/ उत्तराधिकारी चुनने का अधिकार भी दिया गया।
  •  सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार, ऐसी ही एक विधवा महिला के धन से किया गया था।

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- प्रकृति रक्षक अहिल्यामाता:-

  • अहिल्या माता की करुणा केवल अपनी प्रजा पर ही नहीं वरन् अपने शासन में रहने वाले जीव, जंतु, पशु पक्षियों के प्रति भी करुणा एक जैसी ही प्रकट होती थी। उन्होंने पशु पक्षियों के लिए अलग खेत अर्थात चारागाह का निर्माण करवाया। इससे किसानों को होने वाले नुकसान में भी कमी आई। गौ सेवा के लिए भी अहिल्यादेवी ने महत्ती कार्य किया। गोवध बंदी कानून को कठोरता से लागू किया गया।
  • प्रकृति और पर्यावरण को लेकर के अहिल्या माता का की दृष्टि एकदम स्पष्ट थी। उन्होंने वन संपदा को अनर्गल काटने पर दंड का विधान कर दिया था। नदियों के प्रदूषण को लेकर भी वे सजग थीं। उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया था कि मंदिरों का निर्माल्य (पूजा के फूल) सीधे नदी में जाकर के नहीं मिले। मंदिरों के निर्माल्य का उचित प्रबंध हो उसके लिए व्यवस्थाएं की गई थी।
  • लोगों के सामान्य दैनिक कार्य, नहाना, कपड़े धोना, पशुओं को नहलाना इत्यादि कार्यों के लिए उन्होंने नर्मदाजी से अलग प्रवाह निकला, जहां पर लोग ये सब कार्य कर सकते थे। नर्मदा नदी के मुख्य प्रवाह में इस प्रकार के कार्य वर्जित कर दिए गए थे।
  • भूजल स्तर की कमी ना हो, जमीन बंजर ना पड़े, इसलिए जगह-जगह पर नींबू, पीपल, आम, बरगद, कटहल इत्यादि पेड़ लगवाए गए।

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- इदं न  ममः:-

एक बार एक कवि, अहिल्यादेवी की प्रशस्ति लिखकर उनके पास चला आया। कवि की अपेक्षा थी कि देवी अहिल्या उनकी प्रशंसा में लिखी यह कविता पढ़कर बड़ी प्रसन्न होंगी। अहिल्यादेवी ने उसे पढ़ा और और कहा कि- "मैं एक साधारण महिला हूं। मेरी इतनी प्रशस्ति की आवश्यकता नहीं है। मेरी दृष्टि में तो, शिवशंकर के अलावा और कोई भी प्रशंसा के योग्य नहीं है। हम सभी को ईश्वर की प्रशंसा और भजन में ही अपना ध्यान लगाना चाहिए।" ऐसा कहकर उन्होंने उस कवि द्वारा लिखी हुई प्रशस्ति को नर्मदा जी में प्रवाहित करवा दिया।

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- विद्या केन्द्र महेश्वर:-

देवी अहल्याबाई ने अनेक विद्वान अभ्यासकों को राजाश्रय दिया। कुछ विद्वानों को उन्होंने सम्मानपूर्वक महेश्वर में आमन्त्रित किया, उनमें शास्त्र, व्याकरण, पुराण, कीर्तन, वेदान्त, ज्योतिष, संस्कृत, वैद्यक, पुजारी आदि विषयों के लगभग 20 विद्वानों का उल्लेख मिलता है। अहल्यादेवी ने गंगाजल की कावड निर्धारित स्थान पर निर्धारित समय पर पहुँचाने की व्यवस्था स्थायी रूप से की है। ऐसे 32 स्थानों के नाम उपलब्ध है
देवी अहल्याबाई के कालखंड में मुद्रण कला नहीं होने के कारण हस्तलिखित ग्रन्थ मूल्यवान एवं दुर्लभ थे। सामान्यतः शास्त्री, पंडित, पौराणिक, वैदिक, जोशी, प्रतिष्ठित गृहस्थ, सरदार, जागीरदार, राजा महाराजा आदि लोगों के पास ही ऐसे हस्तलिखित ग्रन्थ उपलब्ध होते थे। शाहू महाराज तथा पेशवे काल में ऐसे ग्रन्थों का संग्रह करने का प्रयास हुआ।
 दुर्लभ हस्तलिखित की मूल प्रति से नकल कर देने की शर्त पर ही पुस्तक दी जाती थी। उनकी नकल होने के पश्चात् वे पृष्ठ वापस आने पर आगे के पृष्ठ दिये जाते थे। ऐसे काल में अपने दरबार मैं नकलची रखकर अनेक ग्रन्थों का संग्रह देवी अहल्याबाई ने किया। यह बात निश्चित् ही अभिनन्दनीय है। पुस्तकों का संग्रह होने के साथ-साथ उत्तम लेखकों को इससे काम मिल गया। होलकर शाही के इतिहास में ऐसे 88 ग्रन्थों की सूची मिलती है।

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- वाचनालय:-

देवी अहल्याबाई के कालखंड में मुद्रण कला नहीं होने के कारण हस्तलिखित ग्रन्थ मूल्यवान एवं दुर्लभ थे। सामान्यतः शास्त्री, पंडित, पौराणिक, वैदिक, जोशी, प्रतिष्ठित गृहस्थ, सरदार, जागीरदार, राजा महाराजा आदि लोगों के पास ही ऐसे हस्तलिखित ग्रन्थ उपलब्ध होते थे। शाहू महाराज तथा पेशवे काल में ऐसे ग्रन्थों का संग्रह करने का प्रयास हुआ।
 दुर्लभ हस्तलिखित की मूल प्रति से नकल कर देने की शर्त पर ही पुस्तक दी जाती थी। उनकी नकल होने के पश्चात् वे पृष्ठ वापस आने पर आगे के पृष्ठ दिये जाते थे। ऐसे काल में अपने दरबार मैं नकलची रखकर अनेक ग्रन्थों का संग्रह देवी अहल्याबाई ने किया। यह बात निश्चित् ही अभिनन्दनीय है। पुस्तकों का संग्रह होने के साथ-साथ उत्तम लेखकों को इससे काम मिल गया। होलकर शाही के इतिहास में ऐसे 88 ग्रन्थों की सूची मिलती है।

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- कर्मयोगिनी, राजयोगिनी अहल्याबाई:-

बाह्य सौंदर्य के साथ-साथ आत्मिक सौंदर्य की अनुभूति प्राप्त करने वाली देवी अहल्याबाई का चेहरा तेजस्वी था। सात्विक, भाविक तेज उस पर झलकता था। वह हमेशा शुभ्र वस्त्र परिधान करती थी। चरणों में खड़ाऊ, आसन के लिए सफेद कम्बल था। उनका भवन भी ऐसा ही सादा था। 
असत्य का उन्हें बड़ा तिरस्कार था। असत्य व्यवहार करने वाले की उनके सामने खड़ा होने की हिम्मत नहीं थी।

अत्यन्त नियमित, समयबद्ध दिनचर्या, देवी अहल्याबाई की विशेषता थी। रात के तीसरे प्रहर में उठकर स्नान, पूजा पाठ, पुराण श्रवण करने के पश्चात् दान एवं ब्राह्मणों को भोजन दिया जाता था। उसके बाद ही वे स्वयं भोजन करती थीं। भोजन शाकाहारी एवं सात्विक होता था। फिर ईश्वर स्तुति सुनकर विश्राम होता था। बाद में राजोचित परन्तु सादगीपूर्ण पोशाक पहनकर दरबार में जाती थी। सूर्यास्त तक वहाँ काम करने के बाद दो-तीन घंटे पूजा-अर्चना और फलाहार करती थी और फिर 9 से 11 पुनः दरबार में काम चलता था। अधिक काम होने पर देर रात तक भी वह दरबार में बैठती थी। काम करने की उनकी स्फूर्ति एवं गति अनुकरणीय थी।
 

पुण्यश्लोका लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर- देवी के प्रशासन के कुछ विशेष तथ्य:-

1. देवी अहल्याबाई की न्याय व्यवस्था धनप्राप्ति के लिये नहीं थी।

2. धारणाशक्ति एवं समझदारी अद्वितीय होने के कारण किसी भी बात का मर्म सहजता से ग्रहण करके सही व त्वरित निर्णय देने की उनकी क्षमता थी। उनके आदेश मार्मिक होते थे।

3. दिल्ली बादशाह का एक पत्र लेकर एक सेवक आया। उसने कहा कि पत्र बादशाह का है और स्वागत के लिये दो कदम आगे बढ़कर पत्र लेना चाहिये। तब देवी अहल्याबाई ने निर्भयता से कहा कि "श्रीमंत पेशवा ने बादशाह को जागीर दी है इस कारण उसके पत्र का इतना सम्मान करने की कोई आवश्यकता नहीं है।" कितना साहस एवं स्वाभिमान था अहल्याबाई में!

4. धर्मपरायणता व परधर्म सहिष्णुता जहाँ होती है वहाँ कूटनीति निपुणता नहीं होती। जहाँ कूटनीति कुशलता व कल्पकता होती है वहाँ धार्मिक वृत्ति, कर्तव्यभावना नहीं दिखाई देती है। धैर्य व पराक्रम के साथ विनम्रता नहीं होती। शक्ति व वैभव जहाँ है वहाँ चारित्र्य एवं सात्विकता का दर्शन नहीं होता है। परन्तु ये सभी व्यावहारिक सत्य देवी अहल्याबाई में साकार हुए थे।

5. सारासार विवेक, प्रचंड स्मरण शक्ति, निष्कपटता, निष्कामवृत्ति व ईश्वर पर असीम श्रद्धा का सुन्दर संगम अर्थात् देवी अहल्याबाई। मनुष्य जन्म से नहीं तो सत्कार्य एवं सद्व्यवहार से महान् होता है।

6. अपराधी, दोषी व्यक्तियों के प्रति देवी का रवैय्या बड़ा कठोर था। उनको बन्दी बनाकर कठोर दण्ड भी देती थी। परन्तु दूसरी ओर उनके परिवारजनों के प्रति बहुत दयालु रहती थी। उनके एक पत्र में उल्लेख मिलता है कि हर कैदी के बच्चे और पत्नी को प्रतिदिन प्रति व्यक्ति एक सेर जवार दिया जाने का आदेश था। कैदियों के प्रति सहृदयता का व्यवहार कर उनकी अपराधी प्रवृत्ति कम करने का उनका प्रयोग था।

देवी अहल्याबाई ने 18वीं सदी में जो विचार किया था, उसका प्रयोग अभी सुप्रसिद्ध कारागृह अधीक्षिका श्रीमती किरण बेदी ने यशस्विता से किया है। एक व्यक्ति बन्दी बनाया जाता है तो परिवार के अन्य लोगों की भी प्रवृत्ति अपराधी बन सकती है। 

जीवन का अपराधीकरण अधिक होता जाना सामाजिक स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। इसका विचार आज एक स्त्री ही कर सकती है।

7. देवी अहल्याबाई की न्याय व्यवस्था विकेंद्रित थी। पंचायत का निर्णय सामान्यतः अन्तिम था। जब तक ऊपर के अधिकारी तक कोई शिकायत नहीं की जाती, देवी अहल्याबाई पंचायत न्यायालय के निर्णय में हस्तक्षेप नहीं करती थीं।

8. राजा राज्य का स्वामी नहीं, विश्वस्त है इस भावना से प्रजा के सर्वाधिक कमजोर घटक पर भी अन्याय न हो इसकी चिंता वह करती थी। राजा मात्र होकर भी प्रजातंत्र का एक आदर्श उन्होंने प्रस्तुत किया।

 

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