विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श (Narrative ka Mayajaal)-
नैरेटिव का मायाजाल एवं सही विमर्श-1:-
• हम क्या हैं, हम कौन थे और क्या कर सकते हैं?
• ऐसे प्रश्नों के उत्तरों की चाबी किसके पास है?
• अपनी और दूसरों की दृष्टि में हमारी पहचान क्या है?
• जब किसी विषय विशेष पर हमारे मन में ऐसे कुछ प्रश्न उठते हैं या फिर हमसे उस विषय विशेष पर कोई कुछ पूछता है, तो उन उत्तरों का आधार क्या होता है?
इन सभी प्रश्नों के उत्तर को यदि किसी एक शब्द में व्यक्त करना हो, तो उसे "विमर्श या नैरेटिव (Narrative)" कहा जा सकता है।
हम वही बोलते हैं और समझते हैं, जो हमें बार-बार दिखाया, सुनाया और सिखाया जाता है। वो ही हमारी विश्लेषण करने की शक्ति, हमारे चिंतन की सीमा, हमारी जानकारी की परिधि और ज्ञान की गहराई को निर्धारित करता है।
हमारा चिंतन और मानस (Thinking & Mindset) उस नैरेटिव से बनता है, जो हमारे समक्ष परोसा गया है। "अब वह नैरेटिव सत्य पर आधारित है, अर्धसत्य से प्रेरित है या बिल्कुल झूठा, मिथक है और फर्जी है- यह सब उस नैरेटिव को परोसने वाले और उसकी नीयत (Mentality) पर निर्भर करता है।"
संक्षेप में कहें तो, विमर्श या नैरेटिव एक प्रकार से "जानकारी का प्रबंधन (Knowledge Management)" है या "मानस नियंत्रक (Mindset Controller)" है।
वर्तमान में देश दुनियां में दो प्रकार के नरैटिव्ज चल रहे हैं,
पहला- भारत विरोधी, दूसरा- भारत केन्द्रित।
जिनकी चर्चा हम विस्तार से प्रस्तुत श्रृंखला में करने वाले हैं।
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श-2:-
जब हम उपलब्ध नैरेटिव के आधार पर चर्चा करते हैं और अनुभवों को साझा करते हैं, तब एक Collective Psyche/ Mindset (सामूहिक मानस) का निर्माण होता है। इसी से मानवीय संवेदना व सहयोग या घृणा व शत्रुता का भाव उत्पन्न होता है।
उपलब्ध विमर्श के आधार पर ही हम चर्चा, साझा अनुभव, रूपक, मिथकों और किंवदंतियों के रूप में विचारों का आदान-प्रदान करते हैं, जो हमारे आपसी व्यवहार को परिभाषित करता है।
इस पर यूनाइटेड किंगडम स्थित वारविक विश्वविद्यालय द्वारा मान्यता प्राप्त पुस्तक ‘Organizational Knowledge in the Making : How Firms Create, Use and Institutionalize Knowledge’ के लेखक ‘गेरार्डो पेट्रियोट्टा’ के अनुसार-
“…Narratives deal with the Politics of Meaning i.e. how Meanings are selected, legitimized, encoded and institutionalized at the organizational level.”
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श-3:-
भारतीय जीवन मुल्यों में "एकम सत् विप्रा बहुधा वदन्ति" अर्थात सत्य (ईश्वर) एक है और विद्वान लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से परिभाषित करते हैं। अतः हमारी भारतीय संस्कृति बहुलतावाद (Pluralism) और मतभिन्नता (Dissent) रूपी मूल्यों में विश्वास रखती है।
इसी स्वस्थ परंपरा के कारण ही भारत में अनेक मत-मतावलंबी यथा वैष्णव, शैव, शाक्त, स्मार्त और कालांतर में बौद्ध, जैन, सिख पंथों का जन्म और विकास हुआ।
इस जीवन मुल्य और विश्वास के विद्यमान रहते कोई आश्चर्य नहीं कि जब इस्लाम, पारसी और ईसाइयत का भारत में प्रवेश हुआ, तो न केवल यहां उनका स्वागत किया गया, साथ ही हमारी सनातन संस्कृति ने उन्हें फलने-फूलने की सभी सुविधाएं भी प्रदान की।
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श-4:-
इस्लाम का भारत में आगमन पैगंबर मोहम्मद साहब के जीवनकाल में ही हो गया था। अरब के बाद दुनियां की पहली मस्जिद का निर्माण भी पैगंबर साहब के रहते ही भारत में केरल के तटीय क्षेत्र में हुई।
अरब के व्यापारी अपने साथ नई पूजा-पद्धति लेकर आए और उन्होंने स्थानीय शासन से नमाज अदा करने की सुविधा माँगी। तब सन् 629 में तत्कालीन केरल के हिंदू राजा चेरामन पेरूमल भास्करा रविवर्मा ने कोडुंगल्लूर के तत्कालीन बंदरगाह में चेरामन जुमा मसजिद का निर्माण करवाया।
अप्रैल 2016 में सऊदी अरब के राजकीय दौरे में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने इसी चेरामन जुमा मस्जिद के मूल स्वरूप की स्वर्ण प्रतिकृति सऊदी राजवंश के प्रमुख सलमान बिन अब्दुल अजीज अल सउदी को उपहार स्वरूप भेंट की थी।
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श-5:-
▪︎ फारस (ईरान) में इस्लामी उदय और उससे जनित मजहबी अत्याचारों (जबरन मतांतरण सहित) के शिकार हुए हजारों पारसी लगभग 766 ईस्वी में भारत के गुजरात पहुँचे। वहाँ के तत्कालीन हिंदू राजा ने उनका स्वागत किया। सदियों के कालांतर में पारसी गुजरात और मुंबई जाकर बस गए। आज इनकी जनसंख्या भारत में मात्र 60-70 हजार के आसपास है। लगभग 1250 वर्षों बाद भी यह समुदाय भारत में दूध में घुली चीनी की भाँति जीवनयापन कर रहा है। अल्पसंख्यक होते हुए भी यह समाज देश का सबसे संपन्न-समृद्ध समाज है।
▪︎ इसी प्रकार प्राचीनकाल में अपने उद्गम स्थान पर मजहबी रूप से प्रताड़ित सीरियाई ईसाइयों का केरल में तत्कालीन हिंदू शासकों और जनमानस ने न केवल खुले मन से स्वागत किया, अपितु उनकी पूजा पद्धति और जीवन शैली को पुष्पित-पल्लवित होने का पूरा अवसर भी प्रदान किया।
▪︎ ऐसे ही शरण लेने आए यहूदियों का भी भारत से पुराना नाता है।
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श-6:-
भारत में इस्लाम और ईसाइयत का दूसरा प्रवेश अपने साथ ‘एकेश्वरवाद का सिद्धांत' और 'लाखों लोगों की मौत का फरमान’ लेकर आया, जिसने भारत के बहुलतावादी (Pluralism) नैरेटिव को न केवल प्रभावित करना प्रारंभ किया, अपितु इस देश के सांस्कृतिक और भौगोलिक स्वरूप को बदलने की धृष्टता कर उसमें भी सफलता पाई।
आठवीं शताब्दी में मोहम्मद बिन कासिम द्वारा तत्कालीन भारत के सिंध पर आक्रमण के बाद जब 11वीं सदी के पूर्वार्ध में महमूद गजनवी ने खलीफा का पद सँभाला, तो उसने मजहबी प्रतिज्ञा की थी कि वो हर साल भारत जाएगा और यहां के मंदिरों व मूर्तियों को खंडित करेगा और ‘काफिरों’ को तलवार के बल पर ‘इस्लाम ’ या ‘मौत’ में से एक चुनने का विकल्प देगा।यद्यपि अपने तीन दशकों के कार्यकाल में वह हर वर्ष भारत आने का वचन तो पूरा नहीं कर पाया, किंतु उसने एक दर्जन से अधिक बार भारत पर हमले किए, और सोमनाथ मंदिर सहित देश के असंख्य मंदिरों को लूटा, तोड़ा और उनमें रखी मूर्तियों को नष्ट-भ्रष्ट कर खंडित किया।
कालांतर में भारत आए कासिम-गजनवी के मानस बंधुओं ने ‘काफिर-कुफ्र दर्शन' को आगे बढ़ाया।
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श-7:-
भारत में ईसाइयत का दूसरा और हिंसक प्रवेश 16वीं शताब्दी में पुर्तगालियों के साथ मजहबी ‘सोसायटी ऑफ जीसस’ के सह-संस्थापक फ्रांसिस जेवियर के गोवा आगमन के रूप में हुआ। जेवियर के निर्देश पर हजारों गैर-ईसाइयों को क्रूरतापूर्ण अमानवीय यातनाएं दी गई और उन ईसाइयों (सीरियाई ईसाई सहित) को भी अपने कोपभाजन का शिकार बनाया, जो उनके अनुसार रोमन-कैथोलिक परंपरा का सटीक अनुसरण नहीं कर रहे थे। न केवल उनके हाथ व जीभ काट दी गई, साथ ही उनकी चमड़ी जीवित रहते ही उतार दी गई। इस दौरान हिंदुओं के कई मंदिरों और पूजास्थलों को तोड़ डाला गया।
गोवा में फ्रांसिस जेवियर द्वारा निर्मित 'हाथ काटरो खम्बा' आज भी विद्यमान है, जो जेवियर की क्रूरता व वीभत्स अमानवीय अत्याचारों पर मानो अट्टहास करते हुए उन कहानीयों को स्मरण कराता है। दुर्भाग्य है कि देश में ऐसे क्रूर अत्याचारी के नाम पर आज भी मिशनरी स्कूल काॅलेज चल रहे हैं।
कालांतर में व्यापारियों के भेष में आए कुटिल ब्रिटिशर्स का देश में प्रवेश हुआ और उन्होंने चर्च के मजहबी दायित्व को ‘वैधानिकता’ प्रदान की।
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श-8:-
जिस भारत भूखंड में अनादिकाल से सभी पूजा-पद्धतियों को एक समान भाव, सम्मानपूर्वक और सद्भावना के साथ देखा जाता था, कालांतर में मजहब के नाम पर इस धरती के कई टुकड़े हो गए- अफगानिस्तान, म्यांमार (ब्रह्मदेश), श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश और खंडित भारत (Residual India)। यह खतरा आज भी बना हुआ है।
ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि यहाँ का जो मूल बहुलतावादी, लोकतांत्रिक और समरसतापूर्ण नैरेटिव था, जिसे ‘एकम् सत् विप्रा बहुधा वदंति’, ‘सत्य एक है, लेकिन विद्वान् लोग उसे अलग-अलग तरीके से परिभाषित करते हैं।’ इस वैदिक मूल मंत्र से प्रेरणा मिल रही थी, उसका संघर्ष “मेरा ही ईश्वर ‘सर्वोच्च’, ‘मेरा ही मजहब सच्चा’ और झूठों या काफिरों (अन्य मजहब-पंथ के अनुयायी) को अपने पाले में करना या मौत के घाट उतार देना मेरा मजहबी फर्ज है,” रूपी नैरेटिव से हो गया।
यही नैरेटिव या विमर्श की क्षमता है, जो किसी भी देश की भौगोलिक सीमा और वहाँ के रहने वाले लोगों की मानसिकता को बदल सकता है।
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श-9:-
भारत का बहुलतावादी, लोकतांत्रिक व समरसतापूर्ण 'एकम् सत् विप्रा बहुधा वदन्ति' का विमर्श बनाम परकीयों का 'मेरा ही ईश्वर सर्वोच्च' व 'मेरा ही मजहब सच्चा' विमर्श के संघर्ष में उलझे रहने के कारण हम 800 वर्षों से अधिक समय तक परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़े रहे। वर्तमान खंडित भारत आज भी विमर्शों के इस संघर्ष से मुक्त नहीं है।
सन् 1947 में स्वाधीनता मिलने के बाद भारतीय नेतृत्व की स्वाभाविक इच्छा थी कि देश आगे बढ़े, पुनः अपनी वैभवशाली प्रतिष्ठा को प्राप्त करे और फिर से हम आर्थिक समृद्धि के मार्ग पर लौटें। *किंतु स्वतंत्र भारत का वर्तमान नैरेटिव देशज (देश में जन्मा या स्वदेशी) नहीं था। इसे ब्रिटिशर्स ने अपने शासन को देश में शाश्वत बनाने के लिए एक अभियान के अंतर्गत स्थापित किया था।
जब ब्रिटिशर्स भारत आए, तो यहाँ भारतीयों का एक वर्ग इस्लामी शासन की शारीरिक गुलामी से जकड़ा हुआ था। परंतु मानसिक रूप से वे इस्लामी आक्रांताओं को स्वयं से ऊपर नहीं मानते थे। गुलाम रहते हुए भी उनका (भारतीयों का) स्वाभिमान और उनकी मौलिक पहचान जीवंत थी। अर्थात उनमें 'स्व' बहुत कुछ जाग्रत था।
अंग्रेज कुटिल आक्रमणकारी और चर्च की ‘व्हाइट मैंस बर्डन (White Men's Burden)’ मानसिकता से ग्रसित थे। उन्होंने इस्लामी आततायियों की भाँति यहाँ के लोगों का खुलकर मजहबी दमन नहीं किया। अपितु "इसके स्थान पर उन्होंने कई विकृत नैरेटिव स्थापित किए, और तथाकथित शिक्षित भारतीय उसके शिकार हो गए। भारतीयों को मानसिक रूप से गुलाम बनाने के लिए आवश्यक था कि नए नैरेटिव गढ़े जाएँ, जिसमें वह सफल भी हुए।" इसके परिणामस्वरूप हम आज भी बहुत बार एक-दूसरे को उसी विकृत नैरेटिव के चश्मे से देखते है।
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श-10:-
अंग्रेज भारत पर आक्रमण करके यहाँ स्थापित औपनिवेशिकवाद को वैध ठहराना चाहते थे। इसके लिए पादरी काॅल्डबैल ने सर्वप्रथम छल-कपट युक्त सरासर झूठा ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत या आर्य-द्रविड सिद्धांत' दिया, जिसे अंग्रेज़ों ने प्रचारित कर इसे स्थापित करने का पुरजोर प्रयास किया।
इस छल-कपट युक्त दूषित नैरेटिव के अंतर्गत ब्रिटिशर्स ने यह प्रचारित करना प्रारंभ किया कि आर्य (हिंदू) भारत से बाहर से आए, और यहाँ आकर उन्होंने यहाँ की स्थानीय संस्कृति को नष्ट किया तथा यहां के मूल लोगों को गुलाम बना लिया।
"ऐसा प्रचार करके अंग्रेज यह स्थापित करना चाहते थे कि आर्यों की भाँति इस्लामी आक्रमणकारियों ने भी आठवीं शताब्दी में भारत पर हमला करके राज किया। ऐसी मिथ्या कहानी गढ़ने में अंग्रेजों का अंतिम कुत्सित उद्देश्य यहाँ के लोगों में राष्ट्रवाद की भावना क्षीण करना था, ताकि वे इस भ्रम का शिकार होते रहें कि उनके पूर्वज भी विदेशी थे और वे भी यहाँ के मूल निवासी नहीं थे।
ऐसी अपेक्षा थी कि लगभग 200 वर्षों तक भारत का शोषण करने के बाद जब अंग्रेजों ने भारत छोड़ा, तो इस दूषित नैरेटिव में सुधार हो जाना चाहिए था। किंतु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। भारत के वामपंथियों ने इस दूषित चिंतन को तत्कालीन भारतीय नेतृत्व, जो सोवियत संघ के वाम-समाजवाद से प्रेरित था, उसके आशीर्वाद से इसे आगे बढ़ाया।
प्रस्तुत इस श्रृंखला में इस सत्य को तथ्यों के साथ स्थापित करने का प्रयास किया गया है।
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श-11:-
यह भ्रामक नैरेटिव का चमत्कार है कि हममें से कई लोगों को अपनी पहचान के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं है। वास्तव में यहाँ भारत में हर नागरिक की संस्कृति हिंदू है और हिंदुत्व उसकी जीवनशैली है। हिंदुत्व यहाँ राष्ट्रीयता का पर्याय है—हिंदुत्व अर्थात् भारतीयत्व अर्थात् भारतीयता अर्थात् राष्ट्रीयता।
इसलिए स्वाभाविक रूप से भारतीय उपमहाद्वीप में 99 प्रतिशत लोग या तो हिंदू हैं या फिर हिंदुओं के ही वंशज हैं, जिन्होंने कालांतर में अपरिहार्य कारणों से अपनी मूल पूजा-पद्धति बदल ली और मुस्लिम या ईसाई हो गए। परंतु क्या उपासना-पद्धति बदलने से किसी के पूर्वज बदल सकते है? या संस्कृति बदल सकती है? कदापि नहीं।
"देश में समस्या की वास्तविक जड़ इसी विडंबना में है।"
कुछ मतांतरित लोग यह मानते हैं कि उनके मजहब बदलने के साथ उनका पूर्वजों और उनकी मूल संस्कृति से भी नाता टूट गया है। इसी भ्रम और रुग्ण चिंतन के कारण बहुत से लोग स्वयं को मुस्लिम आक्रांताओं—कासिम, गौरी, गजनवी, खिलजी, बाबर, अकबर, जहाँगीर, औरंगजेब, टीपू सुल्तान से जोड़ते हैं। उनको अपना हीरो मानते हैं। ऐसी स्थिति में वे श्रीराम, श्रीकृष्ण, गुरुनानक, महाराणा प्रताप, पृथ्वीराज चौहान, स्वामी विवेकानंद के साथ न तो किसी प्रकार की संवेदना रख पाते हैं और ना ही उनपर किसी प्रकार के गर्व की भावना प्रकट कर पाते हैं।
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श-12:-
भारत का रक्तरंजित विभाजन और पाकिस्तान का निर्माण किसने किया?
एक भ्रामक नैरेटिव का प्रचार सन् 1947 से अब तक यह किया जाता रहा है कि पाकिस्तान के जन्म के लिए जिम्मेदार ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ वीर विनायक दामोदर सावरकर की घोषणा थी, जिसे पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना ने सन् 1940 में अनुगृहीत किया था।
इससे बड़ा झूठ, कपट कुछ हो नहीं सकता। वीर सावरकर तो अखंड भारत के सच्चे उपासक थे। तथ्यात्मक वास्तविकता तो यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप में ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ का बीजारोपण सर सैयद अहमद खाँ ने तब किया था, जब वीर विनायक सावरकर की आयु मात्र पाँच वर्ष थी। अब यदि इस कपटपूर्ण कुतर्क की मानें, तो क्या पाँच वर्षीय बालक के विचारों ने देश का भौगोलिक नक्शा बदल दिया??
क्या यह झूठा कपटपूर्ण नरैटिव विचारणीय नहीं है?
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श-13:-
वास्तव में, वामपंथियों की विभाजनकारी मानसिकता, अंग्रेजों की साम्राज्यवादी मानसिकता के कारणों से देश को तोड़ने की योजना और मुस्लिम लीग द्वारा प्रतिपादित हिंसक घटनाओं से विवश होकर जिस प्रकार स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व कर रही कांग्रेस और आम जनता ने विभाजनकारी ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ को स्वीकार किया, ठीक उसी तरह वीर सावरकर के समक्ष भी संभवतः कोई और विकल्प नहीं बचा होगा।
यही है नैरेटिव का जादू कि जिस सर सैयद अहमद खां ने ब्रिटिशर्स की गोद में बैठकर भारतीय उपमहाद्वीप में अलगाववाद और विभाजन के रक्तबीज बोए और जिसके नाम पर पाकिस्तान में कई शैक्षणिक संस्थाओं का नामकरण किया गया है, उसे तो वर्तमान खंडित भारत में भी नायक बना दिया गया।
तथ्यों को कपटपूर्वक विकृत करने का ही परिणाम है कि सावरकर को खलनायक और ब्रिटिश समर्थक बताने की कोशिश आज भी जारी है।
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श-14:-
एक भ्रामक मिथ्या प्रचार यह भी किया जाता है कि जिन लोगों ने पाकिस्तान के लिए परतंत्र भारत में आंदोलन किए, वे लोग विभाजन के बाद पाक या ‘शुद्ध भूमि’-पाकिस्तान चले गए। यह एक ऐसा झूठ है, जिसे स्वतंत्रता के बाद से अब तक नैरेटिव के बल पर बार-बार हमारे समक्ष परोसा जा रहा है।
ऐसा कहने वाले दशकों तक सार्वजनिक विमर्श के केंद्र में यह तथ्य सामने लाने से बचते रहे और अब भी इसे भटकाने का प्रयास करते हैं कि पाकिस्तान का निर्माण आखिर किया किसने था?
यह ठीक है कि अंग्रेजों और वामपंथियों ने इसमें अहम भूमिका निभाई। लेकिन क्या मुस्लिम समाज के समर्थन के बिना पाकिस्तान का जन्म संभव था?
जो लोग मजहब के नाम पर विभाजन के लिए आंदोलित थे या देश का विभाजन करना चाहते थे, क्या वे सभी 14 अगस्त, 1947 के खंडित भारत को छोड़कर पाकिस्तान चले गए?
इन प्रश्नों के उत्तर इस श्रृंखला में आगे देने का प्रयास किया जायेगा..।
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श-15:-
आखिर वामपंथियों का इस देश में क्या इतिहास रहा है? यह जानना आवश्यक है:-
▪︎ स्वतंत्रता से पहले मुस्लिम लीग के अतिरिक्त देश का एकमात्र राजनीतिक दल वामपंथियों की कम्युनिस्ट पार्टी थी, जिन्होंने अंग्रेजों और मुस्लिम लीग की सहायता से पाकिस्तान का निर्माण किया;
▪︎ मजहब के आधार पर देश का रक्तरंजित विभाजन कराया;
▪︎ सन् 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में राष्ट्रवादियों के खिलाफ ब्रिटिशर्स के लिए मुखबिरी की;
▪︎ गांधीजी, नेताजी सहित अनेक राष्ट्रवादियों के लिए अपशब्द कहे;
▪︎ खंडित भारत को स्वतंत्र मानने से इनकार किया;
▪︎ देश को और 17 टुकड़ों में विभाजित करने का प्रस्ताव रखा;
▪︎ सन् 1948 में भारतीय सेना के विरुद्ध हैदराबाद के जिहादी रजाकरों की मदद की;
▪︎ वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध में वैचारिक समानता के कारण चीन के मुखपत्र बने;
▪︎ वर्ष 1967 में नक्सलवाद-माओवाद को जन्म दिया;
▪︎ वर्ष 1998 में पोखरण-2 परमाणु परीक्षण का विरोध किया;
▪︎ देश के सुरक्षा में लगे जवानों का दानवीकरण किया; और आतंकवादियों-अलगाववादियों से सदैव सहानुभूति रखी।
अब इसे पिछली एक शताब्दी की सबसे बड़ी त्रासदी कहें या विरोधाभास कि यही वामपंथी स्वतंत्र भारत में भी ‘सेक्युलरवाद’, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’, ‘मतभिन्नता’ आदि के साथ संवैधानिक अधिकार, लोकतंत्र पर मनगढ़ंत भ्रामक विमर्श तय कर रहे हैं।
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श-16:-
इतना ही नहीं, देश में कौन ‘सेक्युलर’ है और कौन ‘सांप्रदायिक’—उसका प्रमाणपत्र भी यही वामपंथी-कुनबा आजादी के 75 वर्ष बाद भी बाँट रहा है।
कितना हास्यास्पद है कि वामपंथियों के पैमाने पर जाति, क्षेत्रीयता और मजहब के आधार पर राजनीति करने वाली- समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा), राष्ट्रीय जनता दल (राजद), जनता दल यूनाइटेड (जदयू), जनता दल सेक्युलर (जदस), राष्ट्रीय लोक दल (रालोद), तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (डीएमके), ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एडीएमके), राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) से लेकर घोर इस्लामवादी जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी), जम्मू-कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलिमीन (एआईएमआईएम) ‘सेक्युलर’ पार्टियाँ हैं। वस्तुतः ये सभी दल छद्म सेक्युलरवादी ही हैं।
यह विडंबना है कि जिस मुस्लिम लीग (1906-1947) ने पाकिस्तान को मूर्त रूप दिया, विभाजन के बाद खंडित भारत में उसके अवशेषरूपी मजहबी इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) को भी देश में वामपंथियों से ‘सेक्युलर’ दल का तमगा मिला हुआ है, जो देश के सबसे पुराने स्वघोषित सेक्युलर दल कांग्रेस की केरल में सहयोगी रही है।
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श-17:-
देश के समक्ष इन विभाजनकारी शक्तियों की वास्तविकता सामने लाने और देश को उनसे बचाने की जिम्मेदारी तत्कालीन कांग्रेस के कंधों पर थी। किंतु जिस प्रकार स्वतंत्रता से पहले उसने इन विषाक्त विचारधाराओं से आर-पार की लड़ाई करने के बजाय उनके सामने घुटने टेक कर समझौता करना उत्तम विकल्प समझा।
ठीक उसी तरह की शुतुरमुर्गी मानसिकता के साथ कांग्रेस ने विभाजन के बाद खंडित भारत में सक्रिय देश विरोधी ताकतों को न केवल फलने-फूलने का अवसर दिया, बल्कि उन्हें संविधान सभा का सदस्य तक बनाया, और समय-समय पर उनसे राजनीतिक समझौता करके उसी औपनिवेशिक विमर्श को भारत-विरोधी वैचारिक चश्मे से निर्धारित करने की स्वीकृति भी दे दी।
इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि स्वतंत्र भारत का एक बड़ा वर्ग न केवल अपनी मूल संस्कृति से कटता गया, अपितु उसके प्रति हीन-भावना से भी ग्रसित हो गया। अन्ततोगत्वा यह वर्ग कालांतर में देश विरोधी तक हो गया।
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श-18:-
आजकल एक विमर्श बनाया जाता है कि मुस्लिम आक्रांता राष्ट्रनिर्माता थे। ऐसे नरेटिव के सन्दर्भ में निम्न प्रश्नों का समुचित उत्तर सही समाधान करेगा:
क्या वाकई ऐसा था?
आखिर मुस्लिम आक्रमणकारी भारत क्यों आए? क्या केवल भारत को लूटने की नीयत से ही मुस्लिम आक्रान्ताओं ने भारत पर हमला किया था?
वास्तव में, इन मजहबी आततायियों का प्रमुख उद्देश्य लूट से कहीं अधिक था। वे ‘काफिर-कुफ्र’ चिंतनयुक्त मजहबी दायित्व की पूर्ति करना चाहते थे; वे ‘काफिरों’ को मारकर या उन्हें धर्मांतरण के लिए विवश करके और उनके पूजा स्थलों को ध्वस्त कर देना चाहते थे।
भारत पर इस्लामी आक्रमणों का 1200 वर्ष पुराना इतिहास ऐसे अनेकों उदाहरणों से भरा पड़ा है। 12वीं शताब्दी में, दहनोन्मादी बख्तियार खिलजी ने नालंदा, विक्रमशिला और उदयगिरि सहित कई सदियों पुराने विश्वविद्यालयों को राख और मलबे में बदल दिया। क्या उसने केवल लूटपाट के उद्देश्य से ऐसा किया था?—कत्तई नहीं।
इसके पीछे उसका वह मजहबी कुटिल चिंतन था, जिसमें कुफ्र (काफिर) को मिटाने की मानसिकता थी, जो आज भी यथावत विद्यमान है।
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श-19:-
इस्लामी आक्रमणकारियों को उनके घोर पापों से मुक्त करने के लिए 'कपटपूर्ण नैरेटिव' बनाए जाते है, जिसमें प्रमुख तीन बिंदु प्रचारित किए गये-
1. इस्लामी आक्रांताओं ने भारत को अपना घर बनाया।
2. स्थानीय हिंदू शासकों के साथ इस्लामियों का हुआ युद्ध मजहबी कारणों से नहीं था, क्योंकि कई हिंदुओं ने मुस्लिम राजाओं के लिए लड़ाई लड़ी और हिंदू शासकों की भी सेना में मुसलमान हुआ करते थे।
3. मुस्लिम शासकों द्वारा हिंदू मंदिरों की मरम्मत रखरखाव के लिए अनुदान दिया जाता था।
इन तर्कों से इस्लामी आक्रमणकारियों को धृष्टतापूर्वक ‘गैर-सांप्रदायिक’ घोषित करने और उनके ‘उदार चरित्र' को स्थापित करने का प्रयास किया जाता रहा है। वास्तविकता तो यह है कि इन कुतर्कों से हम इस मूर्खतापूर्ण निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उपनिवेशवादी अंग्रेज भी आक्रमणकारी नहीं थे, और भारत में ब्रिटिश साम्राज्य अधिकांश भारतीयों द्वारा संचालित था।
क्या ऐसे नरैटिव्ज से मुस्लिम आततायी 'सहिष्णु' हो जाते हैं, जो 'सनातन समाज के हितों' की सोच रखते थे?
क्या ऐसे नरैटिव्ज से अंग्रेज ‘भारतीय’ हो जाते हैं, जो ‘भारतीयों के हित’ में काम किया करते थे?
कड़वी सच्चाई और वास्तविकता तो यह है कि-
▪︎ अंग्रेजों ने भारत का सब प्रकार से शोषण, दमन करते हुए उसे कंगाल किया, और उसके बाद अपने देश लौट गए। लेकिन इस्लामी शासकों ने ऐसा नहीं किया।
▪︎ मुगलों से पहले, अधिकांश आक्रमणकारी भारत की लूटपाट की संपत्ति और ‘काफिर’ गुलामों (विशेषकर हिन्दूओं) को बंधक बनाकर अपने देश लेकर चले गए।
▪︎ मुग़लों ने इस देश का जो भी सुन्दर, मंगल व उत्कृष्ट था उसको लूटा और नष्ट-भ्रष्ट किया। उन्होंने तलवार के दम पर सनातन समाज पर वीभत्स अमानवीय अत्याचार किए, बलात मतांतरण करवाया।
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श- 20:-
एक नैरेटिव यह भी है कि 'मुसलमानों ने भारत पर सैकड़ों वर्षों तक राज किया...।'
यह या तो अर्धसत्य है या फिर सफेद झूठ।
वर्ष 712 में कासिम के सिंध पर इस्लामी हमले से लेकर वर्ष 1707 में क्रूर आततायी औरंगजेब की मृत्यु होने तक भारत में अनेकों स्थानीय हिंदू शासकों, साधु-संतों और सिख गुरुओं की परंपराओं ने इस धरती की मूल सनातन संस्कृति की रक्षा हेतु भीषण प्रतिकार किया था। यह इन्हीं सतत संघर्षों का परिणाम है कि इस्लामी आक्रांता संपूर्ण भारत में कभी अपना एकाधिकार नहीं जमा पाए।
जब अंग्रेजों ने भारत पर कब्जा करना प्रारंभ किया, तब उत्तर भारत के तत्कालीन पंजाब पर धर्मरक्षक सिखों का साम्राज्य था, राजस्थान में राजपूत-जाटों का वर्चस्व, महाराष्ट्र में मराठाओं का शौर्य और ग्वालियर, त्रावणकोर, कोचीन आदि सनातन संस्कृति के ध्वजवाहक अनेक हिंदू शासक स्वयं को क्रूर इस्लामी शक्तियों से मुक्त कराने में सफलता पा चुके थे।
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श- 21:-
ब्रिटिश अधिकारी मैक्स आर्थर मैकॉलिफ (Max Arthur Macauliffe) ने अपने कार्यकाल में ऐसा विकृत विमर्श (नरैटिव) बनाया कि सनातनी हिंदुओं और सिखों के बीच तीन सदी पुराने रोटी-बेटी के संबंध में दरार पड़ जाए...।
वस्तुतः सिक्ख पंथ तो हिन्दु समाज का ही एक अंग है। तत्कालीन समय काल परिस्थिति में सिक्ख गुरुओं ने इस परम्परा को प्रारंभ किया था।
जिन मूल्यों पर हिंदू-सिख संबंधों की नींव सिख पंथ के संस्थापक पुज्य गुरुनानक देवजी और अन्य सिख गुरुओं ने रखी और दशमेश गुरू गोविंदसिंह जी महाराज ने हिन्दू समाज व धर्म की रक्षार्थ खालसा पंथ की स्थापना की, उसे अंग्रेजों ने 1864-1911 की कालावधि में अपने औपनिवेशिक नैरेटिव से विकृत कर दिया।
इस दूषित चिंतन का परिणाम यह हुआ कि सिख पंथ का एक वर्ग सिख गुरुओं की श्रेष्ठ परंपराओं, दर्शन और जीवनशैली का अनुसरण करने के स्थान पर उस विभाजनकारी देश विरोधी मानसिकता का अनुसरण कर रहा है, जिसे ब्रिटिशर्स ने अपने उपनिवेशी साम्राज्य को लंबे समय तक बनाए रखने के लिए प्रतिपादित किया था।
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श- 22:-
इसी नैरेटिव के बल पर "ब्राह्मणों का दानवीकरण" भी किया गया। जिसमें विशेषकर ब्राह्मण को फिल्मों में बलात्कारी या अपराधी की भूमिका में दिखाया जाने लगा। इसमें भारतीय फिल्म उद्योग से जुड़े एक वर्ग ने अग्रणी भूमिका निभाई है।
वास्तव में, मनगढ़ंत विमर्श के बल पर पहले ब्रिटिशर्स और फिर वामपंथियों (Left-Liberals) द्वारा ब्राह्मणों को इसलिए शिकार बनाया गया, *क्योंकि मंदिरों में पूजा-पाठ, अन्य कर्मकांड, वैवाहिक संस्कार, अंतिम संस्कार आदि से भारतीय संस्कृति को बचाए रखने में साधु-संतों के साथ ब्राह्मण समाज सदैव सबसे अग्रणी रहा है। ब्राह्मण समाज सदैव समाज प्रबोधक व शिक्षक की भूमिका में हिन्दु समाज को दिशा देता आया है।
जरा सोचिए, यदि घरों-मंदिरों में हवन, यज्ञ, पूजन विधियाँ क्षीण या लुप्तप्राय हो जाएँ, तो क्या हिंदू समाज लंबे समय तक अक्षुण्य रह पाएगा? इसीलिए हिंदू सनातन समाज को धार्मिक विधि-विधान से जोड़कर रखने वाले ब्राह्मण समाज को अपराधी और सामाजिक उपहास का केंद्र बनाने और उसका दानवीकरण करने के लिए भारतीय सिनेमा के माध्यम से जानबूझकर ब्राह्मण विरोधी नैरेटिव गढ़ा गया।
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श- 23:-
कालांतर में विशेषकर मुगलों के कालखंड से हिंदू समाज कई कुरीतियों से घिरता गया और उसमें अस्पृश्यता को बढ़ावा मिला। किंतु यह भी एक निर्विवादित सच है कि हिंदू वाङ्मय में इन कुप्रथाओं की कोई स्वीकार्यता नहीं है।
वास्तव में, वैदिक चिंतन सर्वस्पर्शी है और विश्व कल्याण के प्रति समर्पित है। वह केवल वेद अनुगामियों के बीच सद्भावना का संचार नहीं करता, अपितु पूर्ण ब्रह्मांड में शांति और सुख की कामना करता है। ऐसे वैचारिक अधिष्ठान में अस्पृश्यता जैसी कुरीतियों का स्थान कैसे हो सकता है?
सनातन हिंदू समाज को अस्पृश्यता आदि से परिमार्जित करने की दिशा में कई महापुरुषों ने आंदोलन किए हैं। जिनमें रामानुजाचार्य, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गांधी, डाॅ भीमराव अम्बेडकर, श्रीमाधवराव गोलवलकर (श्री गुरूजी) और मधुकर दत्तात्रेय देवरस के प्रयास प्रमुख हैं। यह उसी का परिणाम है कि समाज में बौद्धिक स्तर पर छुआछूत का कोई समर्थन नहीं करता है और हमारे संविधान में आरक्षण की व्यवस्था सवर्णों के सहयोग से ही अब तक जारी है।
इसके प्रतिकूल, वामपंथियों और छद्म धर्मनिरपेक्षी (Pseudo Seculars) ने कभी भी इन सामाजिक कुप्रथाओं के परिमार्जन के लिए कोई वस्तुनिष्ठ प्रयास नहीं किए, उलटा इसका उपयोग उन्होंनेे हिंदू समाज में आपसी वैमनस्यता व घृणा उत्पन्न करने तथा समाज को बाँटने के अपने कुत्सित वैचारिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु किया और वे अब भी ऐसा ही कर रहे हैं।
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श- 24:-
नैरेटिव यह भी बनाया गया है कि—
▪︎ ‘सन् 1947 से पहले भारत राष्ट्र नहीं था’,
▪︎ ‘अंग्रेजों ने देश को एक सूत्र में बाँधा’,
▪︎ ‘ब्रिटिशर्स ने भारत को लोकतंत्र और पंथनिरपेक्षता भेंट स्वरूप दी।'
उपरोक्त विमर्श बिल्कुल झूठे और आधारहीन हैं। भारत एक चिरपुरातन सनातन राष्ट्र है। यह कितना प्राचीन है, कह पाना कठिन है। विष्णु पुराण में उल्लिखित है--
उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्तति:।।
अर्थात- 'समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो देश है, उसे भारत कहते हैं तथा उसकी सन्तानों (नागरिकों) को भारती कहते हैं।'
यहां की संस्कृति व परम्परा सदैव ही सहिष्णुता और पंथनिरपेक्षता की रही है। भारत ने हर मत पंथ को फलने फूलने का पर्याप्त अवसर दिया है।
उपरोक्त नैरेटिव को निरंतर आगे बढ़ाने का उद्देश्य यह था कि इस आधार पर भारत को कई टुकड़ों में तोड़ा जा सकता है। इस विचार को आगे बढ़ाने में वामपंथियों (कम्युनिस्टों) ने अग्रणी भूमिका निभाई। वर्तमान में भी छद्म धर्म-निरपेक्षी (Pseudo Seculars) और Left-Liberals इन नैरेटिव्ज का राग अलापते रहते हैं।
कम्युनिस्टों को इसकी प्रेरणा अपने प्रणेता कार्ल मार्क्स के सन् 1850 के दशक में ‘न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून’ (New York Daily Tribune) समाचार-पत्र में प्रकाशित उन शृंखलाबद्ध आलेखों से मिलती है, जिसमें वे भारतीय संस्कृति और जीवनशैली को कालबाह्य (Outdated) बताते हुए भारत की दयनीय स्थिति के लिए उत्तरदायी ठहराते हैं।
कार्ल मार्क्स के अनुसार, भारत में क्रांति या नवसृजन तभी संभव है, जब यहाँ की परंपराओं, संस्कृति और जीवनशैली को नष्ट कर दिया जाए।
विमर्श (नैरेटिव) का मायाजाल एवं सही विमर्श- 25:-
दिलचस्प तथ्य यह भी है कि *कार्ल मार्क्स* ने अपने यह विचार कि 'भारत की दयनीय स्थिति के लिए यहां की कालबाह्य संस्कृति और परम्पराएँ हैं, अतः यहां नव क्रान्ति लाने के लिए इन्हें नष्ट करना होगा'; - को उसने भारत आए बिना हजारों मील दूर बैठकर, बिना किसी वस्तुनिष्ठ जानकारी के और बिना किसी जनसंचार क्रांति—विशेषकर इंटरनेट और सोशल मीडिया के प्रस्तुत किए थे।
यह जानते हुए भी किसी एकेश्वरवादी मजहब की भाँति भारत के मार्क्सवादी रक्तबीज इन्हीं कुतर्कों को अंतिम सत्य मानकर आगे बढ़ायेंगे और बढ़ा भी रहे हैं। यही कारण है कि वामपंथी भारत की बहुलतावादी सनातन संस्कृति से स्वयं को जोड़ नहीं पाए हैं।
जब मार्क्सवाद के प्रारंभिक प्रचारक पहली बार भारत आए थे, तो यहाँ कुंभ मेले में आस्था के जन-सैलाब को देखकर उन्हें बड़ी निराशा हुई और उन्होंने तब ही यह मान लिया था कि इस अध्यात्म प्रधान देश में साम्यवाद का पल्लवित होना मुश्किल काम है, इसलिए उन्होंने भारत को कई टुकड़ों में बाँटने का हरसंभव प्रयास किया। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ब्रिटिशर्स के समक्ष भारत देश के 17 और टुकड़े करने का वामपंथी प्रस्ताव इसका स्पष्ट प्रमाण है।
यही मानसिकता देश के कई क्षेत्रों में दशकों से जारी माओवाद-नक्सलवाद (अर्बन नक्सल सहित), ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU दिल्ली) जैसे शैक्षणिक संस्थानों की राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से भी स्पष्ट प्रतिबिंबित है।
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